चाइल्ड कस्टडी की मामलों में बच्चे की इच्छा भी बहुत महत्वपूर्ण: सर्वोच्च न्यायलय

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Last Updated: Feb 6, 2025

Case: Smriti Madan Kansagra v Perry Kansagra (Civil Appeal No. 3559/2020)

Section 17(3) of the Guardian & Wards Act 1890

17(3), the preferences and inclinations of the child are of vital importance for determining the issue of custody of the minor child. Section 17(5) further provides that the court shall not appoint or declare any person to be a guardian against his will".

Smriti Madan Kansagra v Perry Kansagra (Civil Appeal No. 3559/2020) केस जहाँ Guardian & Wards Act 1890  की धारा 17(3) को समक्ष रखते हुए माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने ये माना की चाइल्ड कस्टडी की मामले में नाबालिग की इच्छा भी सामान रूप से महत्वपूर्ण है तथा उसकी वरीयताओं पर भी विचार किया जाना चाहिए खास कर जब वो एक ऐसे उम्र में हो जहां उसमे अपनी पसंद और नापसंद की बारे में पर्याप्त जानकारी हो तथा वो भी अपनी वरीयता की अनुसार चुनाव करने योग्य हो.

सुप्रीम कोर्ट की तीन जज की बेंच जिसमे न्यायमूर्ति यु यु ललित, न्यायमूर्ति इंदु मल्होत्रा तथा न्यायमूर्ति हेमंत गुप्ता थे उन्होंने एक अत्यंत महत्वपूर्ण फैसले में एक नाबालिग बालक की कस्टडी उसके पिता को प्रदान की जो की नैरोबी, केन्या  में रहते है।

यह क़ानूनी लड़ाई लगभग दस साल चली जिसमे आदित्य (वह नाबालिग बालक जिसकी कस्टडी की लिए ये केस था) की कस्टडी की लिए उसके माता पिता ने परिवार कोर्ट से ले कर सुप्रीम कोर्ट तक ये कठिन कनूनी राह तय की तथा अंततः सुप्रीम कोर्ट ने आदित्य की सम्पूर्ण कस्टडी उसके पिता को प्रदत्त की।

यह जानना भी बेहद रोचक है की इस लम्बी और कठिन क़ानूनी लड़ाई की दौरान माननीय न्यायमूर्ति आदित्य से व्यक्तिगत रूप से अपने चैम्बर में कई बार मिले और यह जानने की कोशिश करी की आदित्य की व्यक्तिगत राय क्या है तथा उसकी वरीयता में उसके माता या पिता में उसकी अधिक नज़दीकी किसके साथ है। इस प्रकार की अनौपचारिक बातचीत से माननीय न्यायमूर्ति संतुष्ट हुए की बालक की समझ और वरीयता में वो अपने पिता से ज्यादा करीब था तथा उसकी इच्छा अपने पिता के साथ रहने की थी।

माननीय सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में स्पष्ट तौर Guardian & Wards Act 1890 अधिनियम की धारा १७(३)  का उल्लेख किया तथा स्पष्ट किया की इस केस में बालक की भविष्य का फैसला इस प्रकार से होना चाहिए जो उसके भले के लिए सर्वोपरि हो तथा उसके सभी हितों की सम्पूर्ण रक्षा भी हो।

माननीय सुप्रीम को ने परिवार कोर्ट, हाई कोर्ट के फैसले तथा कौंसिलर की रिपोर्ट को भी बहुत गौर से परखा और पाया की बालक आदित्य ने अपने पिता की अधिक झुकाव दिखाया था। अपने फैसले को अंतिम रूप देते हुए माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने बालक की हितों को सर्वोपरि मानते हुए उसकी संगरक्षण की ज़िम्मेदारी उसके पिता को सौंप दी। सुप्रीम कोर्ट का पूरा फैसला यहाँ से पढ़े।:

https://main.sci.gov.in/supremecourt/2020/8161/8161_2020_34_1501_24506_Judgement_28-Oct-2020.pdf

 

Frequently asked questions

क्या बच्चा होने के बाद पिता को उसकी कस्टडी मिलती है?

बच्चे की कस्टडी के मामले में न्यायालय का मुख्य उद्देश्य बच्चे के सर्वोत्तम हित को सुनिश्चित करना होता है। बच्चा होने के बाद पिता को उसकी कस्टडी मिल सकती है, लेकिन यह पूरी तरह से मामले के तथ्यों और परिस्थितियों पर निर्भर करता है। न्यायालय निम्नलिखित बातों पर विचार करता है:

  1. बच्चे की उम्र और लिंग: छोटे बच्चों (आमतौर पर 5 साल से कम उम्र के) की कस्टडी आमतौर पर मां को दी जाती है, लेकिन यह हमेशा नहीं होता।
  2. बच्चे का कल्याण: न्यायालय यह देखता है कि कौन सा अभिभावक बच्चे के शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक कल्याण के लिए बेहतर है।
  3. पिता और मां की स्थिति: न्यायालय माता-पिता की आर्थिक स्थिति, नैतिक चरित्र और बच्चे के प्रति उनकी प्रतिबद्धता पर विचार करता है।

बच्चे की कस्टडी के लिए कौन सी धारा लगती है?

बच्चे की कस्टडी के लिए मुख्यत: निम्नलिखित कानूनी प्रावधान और धाराएँ लागू होती हैं:

  1. हिंदू माइनॉरिटी और गार्जियनशिप एक्ट, 1956 (Hindu Minority and Guardianship Act, 1956):

    • इस अधिनियम के तहत, धारा 6 में माता-पिता के अधिकारों और दायित्वों का उल्लेख किया गया है।
  2. गवाहों और संरक्षण अधिनियम, 1890 (Guardians and Wards Act, 1890):

    • यह अधिनियम माता-पिता या किसी अन्य के द्वारा कस्टडी और संरक्षकता के मामलों को नियंत्रित करता है।
  3. विभिन्न व्यक्तिगत कानून:

    • हिंदू, मुस्लिम, ईसाई और पारसी कानून भी कस्टडी के मामलों को नियंत्रित करते हैं, और उनके अलग-अलग प्रावधान होते हैं।

बच्चे की कस्टडी कैसे प्राप्त करें?

बच्चे की कस्टडी प्राप्त करने के लिए निम्नलिखित कदम उठाए जा सकते हैं:

  1. कस्टडी के लिए आवेदन करना:

    • संबंधित न्यायालय में बच्चे की कस्टडी के लिए एक याचिका दायर करें।
    • याचिका में बच्चे के कल्याण और आपकी योग्यता के बारे में विस्तृत जानकारी शामिल करें।
  2. कानूनी सलाह:

    • एक अनुभवी वकील से सलाह लें जो परिवार कानून में विशेषज्ञता रखता हो।
    • वकील आपकी याचिका तैयार करने में मदद करेगा और न्यायालय में आपका प्रतिनिधित्व करेगा।
  3. सबूत प्रस्तुत करना:

    • अपने पक्ष में सबूत प्रस्तुत करें जो यह दर्शाए कि आप बच्चे के कल्याण के लिए सबसे अच्छे अभिभावक हैं।
    • इसमें आपकी वित्तीय स्थिरता, नैतिक चरित्र, और बच्चे के प्रति आपकी प्रतिबद्धता के प्रमाण शामिल हो सकते हैं।
  4. मध्यस्थता और परामर्श:

    • यदि संभव हो तो, माता-पिता के बीच मध्यस्थता और परामर्श के माध्यम से समाधान निकालने का प्रयास करें।
  5. न्यायालय का आदेश:

    • न्यायालय बच्चे के सर्वोत्तम हित को ध्यान में रखते हुए कस्टडी के बारे में निर्णय करेगा।

बच्चों पर ज्यादा अधिकार किसका है?

बच्चों पर अधिकार के मामले में सामान्यतः मां और पिता दोनों के समान अधिकार होते हैं, लेकिन निम्नलिखित परिस्थितियों में मां को अधिक प्राथमिकता दी जा सकती है:

  1. छोटे बच्चे: छोटे बच्चों (आमतौर पर 5 साल से कम उम्र के) की कस्टडी आमतौर पर मां को दी जाती है।
  2. मां का कल्याण: यदि मां बच्चे की शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक कल्याण के लिए बेहतर साबित होती है, तो उसे प्राथमिकता दी जा सकती है।
  3. समान अधिकार: हिंदू माइनॉरिटी और गार्जियनशिप एक्ट, 1956 के तहत, माता-पिता दोनों के समान अधिकार होते हैं, लेकिन न्यायालय बच्चे के सर्वोत्तम हित को ध्यान में रखते हुए निर्णय लेता है।

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क्या बच्चा होने के बाद पिता को उसकी कस्टडी मिलती है?

बच्चे की कस्टडी के मामले में न्यायालय का मुख्य उद्देश्य बच्चे के सर्वोत्तम हित को सुनिश्चित करना होता है। बच्चा होने के बाद पिता को उसकी कस्टडी मिल सकती है, लेकिन यह पूरी तरह से मामले के तथ्यों और परिस्थितियों पर निर्भर करता है। न्यायालय निम्नलिखित बातों पर विचार करता है:

  1. बच्चे की उम्र और लिंग: छोटे बच्चों (आमतौर पर 5 साल से कम उम्र के) की कस्टडी आमतौर पर मां को दी जाती है, लेकिन यह हमेशा नहीं होता।
  2. बच्चे का कल्याण: न्यायालय यह देखता है कि कौन सा अभिभावक बच्चे के शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक कल्याण के लिए बेहतर है।
  3. पिता और मां की स्थिति: न्यायालय माता-पिता की आर्थिक स्थिति, नैतिक चरित्र और बच्चे के प्रति उनकी प्रतिबद्धता पर विचार करता है।

बच्चे की कस्टडी के लिए कौन सी धारा लगती है?

बच्चे की कस्टडी के लिए मुख्यत: निम्नलिखित कानूनी प्रावधान और धाराएँ लागू होती हैं:

  1. हिंदू माइनॉरिटी और गार्जियनशिप एक्ट, 1956 (Hindu Minority and Guardianship Act, 1956):

    • इस अधिनियम के तहत, धारा 6 में माता-पिता के अधिकारों और दायित्वों का उल्लेख किया गया है।
  2. गवाहों और संरक्षण अधिनियम, 1890 (Guardians and Wards Act, 1890):

    • यह अधिनियम माता-पिता या किसी अन्य के द्वारा कस्टडी और संरक्षकता के मामलों को नियंत्रित करता है।
  3. विभिन्न व्यक्तिगत कानून:

    • हिंदू, मुस्लिम, ईसाई और पारसी कानून भी कस्टडी के मामलों को नियंत्रित करते हैं, और उनके अलग-अलग प्रावधान होते हैं।

बच्चे की कस्टडी कैसे प्राप्त करें?

बच्चे की कस्टडी प्राप्त करने के लिए निम्नलिखित कदम उठाए जा सकते हैं:

  1. कस्टडी के लिए आवेदन करना:

    • संबंधित न्यायालय में बच्चे की कस्टडी के लिए एक याचिका दायर करें।
    • याचिका में बच्चे के कल्याण और आपकी योग्यता के बारे में विस्तृत जानकारी शामिल करें।
  2. कानूनी सलाह:

    • एक अनुभवी वकील से सलाह लें जो परिवार कानून में विशेषज्ञता रखता हो।
    • वकील आपकी याचिका तैयार करने में मदद करेगा और न्यायालय में आपका प्रतिनिधित्व करेगा।
  3. सबूत प्रस्तुत करना:

    • अपने पक्ष में सबूत प्रस्तुत करें जो यह दर्शाए कि आप बच्चे के कल्याण के लिए सबसे अच्छे अभिभावक हैं।
    • इसमें आपकी वित्तीय स्थिरता, नैतिक चरित्र, और बच्चे के प्रति आपकी प्रतिबद्धता के प्रमाण शामिल हो सकते हैं।
  4. मध्यस्थता और परामर्श:

    • यदि संभव हो तो, माता-पिता के बीच मध्यस्थता और परामर्श के माध्यम से समाधान निकालने का प्रयास करें।
  5. न्यायालय का आदेश:

    • न्यायालय बच्चे के सर्वोत्तम हित को ध्यान में रखते हुए कस्टडी के बारे में निर्णय करेगा।

बच्चों पर ज्यादा अधिकार किसका है?

बच्चों पर अधिकार के मामले में सामान्यतः मां और पिता दोनों के समान अधिकार होते हैं, लेकिन निम्नलिखित परिस्थितियों में मां को अधिक प्राथमिकता दी जा सकती है:

  1. छोटे बच्चे: छोटे बच्चों (आमतौर पर 5 साल से कम उम्र के) की कस्टडी आमतौर पर मां को दी जाती है।
  2. मां का कल्याण: यदि मां बच्चे की शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक कल्याण के लिए बेहतर साबित होती है, तो उसे प्राथमिकता दी जा सकती है।
  3. समान अधिकार: हिंदू माइनॉरिटी और गार्जियनशिप एक्ट, 1956 के तहत, माता-पिता दोनों के समान अधिकार होते हैं, लेकिन न्यायालय बच्चे के सर्वोत्तम हित को ध्यान में रखते हुए निर्णय लेता है।

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